देखा जो मैंने अपने मित्र का बटुआ,
ना जाने मुझे ये क्या हुआ…
था दिल बड़ा उसका
या समझ मेरी छोटी
खर्च करते वक्त खुद की ना सोची,
बातें करता था हर वक्त खर्चे देने की
मुझे कभी एक रुपये की भी ना करने दी.
देखा जो मैंने अपने मित्र का बटुआ,
ना जाने मुझे ये क्या हुआ…
आया था बड़ी ही दूर से वो
थी जिद मेरी क्योंकि जो
कराना चाहता था मैं पैसे खर्च उसकी
देनी थी उसे मुझे पार्टी ज़रूरी
जानता ना था मैं उसकी मजबूरी
आया था पूरी करने वो मेरी इक्षा
आज तक ना था मैं उसे समझा.
देखा जो मैंने अपने मित्र का बटुआ,
ना जाने मुझे ये क्या हुआ…
खाली हाथ ही दौड़ाता चला आया
कहा था मैंने, “मेरे लिये कूछ क्यूं ना लाया”
बोला था उसने, “तुमने था जल्दी बुलाया,
इसलिये मैं दौड़ता चला आया.”
नाराज़ था उससे मैं कूछ भी ना था बोला.
देखा जो मैंने अपने मित्र का बटुआ,
ना जाने मुझे ये क्या हुआ…
देखा था मैंने बटुए को उसकी
थी खाली बटुआ उसकी फिर भी
किये जा रहा था वादे वो मुझसे
तुम मुझे अब भी ना समझे
हो तुम मुझे जान से भी प्यारे
हो दोस्त मेरे तुम जहाँ से भी न्यारे
रही बात खर्चे की वो तो मैं करूंगा
मैं अपनी बातों से ना मुकरुँगा.
देखा जो मैंने अपने मित्र का बटुआ,
ना जाने मुझे ये क्या हुआ…
“ना है कोई उस सा जहां में कोई दूसरा
मैं ही था जो अब तक ना था सुधरा
करता रहा बात पैसों की
दोस्ती उसकी अब तक ना समझी ,
पैसे तो फिर कभी ले आऊँगा,
पर उस सा दोस्त कहाँ से लाऊँगा ”
देखा जो मैंने अपने मित्र का बटुआ,
ना जाने मुझे ये क्या हुआ…