Book Review: राष्ट्रवाद के पुनर्जागरण का युग इतिहास

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प्रज्ञा मिश्रा
Book Review: ब्रिटिशकालीन भारत मे राष्ट्रवाद और खासतौर पर हिंदुत्व का पुनर्जागरण कोई सामान्य घटना नही हो सकती। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में इसके संगठन और विस्तार की कथा यदि किसी एक चरित्र के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है तो यह निश्चय ही एक अत्यंत श्रमसाध्य और कठिन कार्य है। यही कार्य दिख रहा है से संस्कृति पर्व प्रकाशन से सद्यः प्रकाशित पुस्तक – संघ सृजन के पुष्प: बैरिष्टर नरेंद्रजीत सिंह में। इस पुस्तक का लोकार्पण हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने किया है। इसके लेखक हैं प्रख्यात राष्ट्रवादी अध्येता और वरिष्ठ पत्रकार संजय तिवारी।

यह पुस्तक स्वयं में आधुनिक भारत के इतिहास की अनेक घटनाओं के साथ साथ ऐसे ऐसे पात्रों से सहज परिचय करा देती है जिनके बारे में नई पीढ़ी को जानना ही चाहिए। संघ के द्वितीय संघ चालक गुरुजी गोलवलकर , बालासाहब देवरस, के सी सुदर्शन और रज्जू भैया जी से लेकर वर्तमान सरसंघ चालक मोहन भागवत, राममंदिर आंदोलन के महानायक अशोक सिंघल और एकात्म मानव वाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय तक को एक बार मे समझने का अवसर यह पुस्तक सहज ही सुलभ करा देती है। अटल बिहारी बाजपेयी और कानपुर से उनके संबंधों को भी यह पुस्तक सलीके से स्थापित करती है तो दूसरी ओर बीसवीं शताब्दी के भारत की एक जीवंत तस्वीर यह पुस्तक रेखांकित कर देती है। लाहौर से कश्मीर और कानपुर की यात्रा कराती इस पुस्तक की शैली इतनी मनोहारी है कि एक बार भूमिका से जब पाठक इसे पढ़ने की शुरुआत करता है तो चित्रपट की तरह वह अंतिम पन्ने पर ही जाकर ठहरता है। यद्यपि पुस्तक के केंद्रीय चरित्र के रूप में बैरिष्टर नरेंद्रजीत सिंह हैं लेकिन इस एक चरित्र के इर्द गिर्द के फलक के विस्तार में वह सबकुछ है जिसको नए भारत के प्रत्येक राष्ट्रवादी भारतीय युवा को जानना चाहिए।
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पुस्तक की भूमिका के बाद भावभूमि में लेखक ने बहुत कुछ स्पष्ट भी कर दिया है। अत्यंत रोचक शैली में कहानी बनती गयी है। शुरुआत ही है- पिछली शताब्दि का प्रथम चरण। आरम्भिक दशक का भारत। 1857 की क्रान्ति के पांच दशक बीत चुके थे। प्रथम क्रान्ति की महानायिका महारानी लक्ष्मीबाई के कर्मक्षेत्र से लगभग 200 किमी. पूरब और लखनऊ से 80 किमी. दक्षिण-पश्चिम में पतित पावनी गंगा के तट पर अवस्थित तत्कालीन भारत का उभरता औद्योगिक नगर कानपुर। जिस स्वरूप में यह नगर आज अवस्थित है, निश्चित रूप से पिछली शताब्दि के आरम्भ में हर प्रकार से इसका स्वरूप कुछ और ही रहा होगा। इसके निकट बिठूर और कालपी के साथ झांसी की प्रसिद्धि इतिहास में जिस रूप में दर्ज है उससे लगभग सभी परिचित हैं। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का यह युवा काल कहा जा सकता है। ऐसे समय में कानपुर में एक ऐसे परिवार का अभ्युदय होता है जिसने केवल कानपुर नहीं बल्कि उत्तर भारत में भारतीयता, सनातनता, संस्कृति, सेवा, चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे अद्भुद आधार तैयार किया जिससे विगत लगभग सवासौ वर्षों में भारत ने बहुत कुछ अर्जित किया है। सामान्य तौर पर पुस्तकों में या सूचनाओं में कानपुर को एक औद्योगिक नगर के रूप में परिचित करा दिया जाता है लेकिन इतिहास के पन्नों में बहुत कुछ ऐसा अलिखित रह गया है जिससे कानपुर का परिचय ठीक से जाना जा सके। यह अलिखित इतिहास वास्तव में अखण्ड भारत में सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा और सेवा का वह खण्ड है जिससे नई पीढ़ी को अवगत कराने के लिए कम से कम पांच पीढ़ियों का संक्षिप्त विवरण और उस देशकाल, परिस्थिति को सामने रखना अपरिहार्य है। यह एक कथा की तरह है। ऐसी कथा जो भारत के सवासौ वर्षों के इतिहास को दिखाती भी है, पढ़ाती भी है और बड़ी शिद्दत से अनुभव भी कराती है।
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यह यात्रा शुरू होती है तत्कालीन भारत (वर्तमान पाकिस्तान) के झेलम जिले के भौन चटवाल गांव से। इस गांव में एक समृद्ध ज़मीदार परिवार रहता था। इस परिवार के मुखिया सरदार गणपत राय जी और उनके अनुज लाला गण्डामल जी की पूरे पंजाब में बड़ी अच्छी साख थी। इसी परिवार में 1874 में गण्डामल जी के पुत्र के रूप में जन्म हुआ एक तेजस्वी बालक का जिनका नाम रखा गया विक्रमाजीत सिंह। गण्डामल जी बलरामपुर स्टेट में दीवान के रूप में कार्यरत थे और गण्डामल जी के बड़े भाई सरदार गणपत राय जी फैज़ाबाद में डिप्टी कलक्टर थे। तात्पर्य यह कि इतिहास का यह कथाक्रम वर्तमान पाकिस्तान के भौन चटवाल गांव से तत्कालीन संयुक्त प्रांत के बलरामपुर स्टेट तक पहुंचता है। बालक विक्रमाजीत सिंह की शिक्षा के लिए तत्कालीन इलाहाबाद उचित लगा और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए, और एलएलबी करने के बाद वह अपने कार्यस्थल के रूप में कानपुर आ गए और वकालत करना शुरू कर दिये। कानपुर में विक्रमाजीत सिंह की वकालत कितनी सफल रही होगी इसको इस तथ्य से जाना जा सकता है कि लोगों ने उनको मुकदमाजीत सिंह के नाम से बुलाना शुरू कर दिया। अग्रेज़ी शासन ने यद्यपि विक्रमाजीत सिंह को रायबहादुर की उपाधि दी लेकिन विक्रमाजीत सिंह उस उपाधि से इतर सनातन भारत के निर्माण के लिए प्रयत्नशील रहने लगे। विक्रमाजीत सिंह का विवाह चटवाल के ही मेहता गणपतराय जी की पुत्री रुक्मिणि देवी के साथ केवल पन्द्रह वर्ष की आयु में हो गया था। विक्रमाजीत सिंह के बारे में पुस्तक में में अलग से  चर्चा की गयी है। यहां झेलम जिले से कानपुर तक की इतिहास की यात्रा के कुछ पड़ावों को जान लेना आवश्यक है।
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विक्रमाजीत सिंह जी के तीन बेटे हुए। इनके प्रथम पुत्र श्रीरणजीत सिंह जी लखनऊ के प्रतिष्ठित उद्यमी के रूप में स्थापित हुए। विक्रमाजीत सिंह जी के तीसरे पुत्र श्रीमहेन्द्रजीत सिंह जी हुए।अब चर्चा करते हैं रायबहादुर विक्रमाजीत सिंह के मंझले पुत्र बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह जी की। बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह को केन्द्रित कर इस पुस्तक के लिखे जाने का महत्व और औचित्य की चर्चा करें इससे पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह जी के दो बेटे और दो बेटियां हुयीं। बेटियों में लावण्य कीर्ति और किरण कौमुदी अमृतसर में व्यावसायिक घराने में व्यवस्थित थीं और उन दोनों में से एक का निधन हो चुका है। तीसरे नंबर के पुत्र धीरेन्द्रजीत सिंह वकील थे और उनका भी निधन हो चुका है। चौथे नंबर के पुत्र वीरेन्द्रजीत सिंह इस समय नरेन्द्रजीतसिंह के उत्तराधिकारी के रूप में वह सबकुछ कर रहे हैं जिनकी नीव विक्रमाजीत सिंह जी और नरेन्द्रजीत सिंह जी ने कानपुर में डाली थी। वीरेन्द्रजीत सिंह जी की तीन संतानों में ज्येष्ठ पुत्र यतीन्द्रजीत सिंह जी का निधन हो चुका है। पुत्री श्रीमती गौरी नैयर लुधियाना में ब्याही हैं। छोटे पुत्र शैलेन्द्रजीत सिंह सिंगापुर के बड़े उद्योगपति हैं। यतीन्द्रजीत सिंह जी अपने तेजवी पूर्वजों की तरह ही अत्यंत कर्मठ और स्वप्नदर्शी राष्ट्रसेवक के रूप में अत्यंत सक्रिय रहे हैं। प्रभु की ऐसी इच्छा कि उनको कार्य करने का बहुत कम ही समय मिला। फिर भी उन्होंने बहुत कुछ ऐसा किया है जिसको उनके लिए समर्पित इसी पुस्तक के एक अध्याय में वर्णित किया गया है। स्वर्गीय यतीन्द्रजीत सिंह की धर्मपत्नी श्रीमती नीतू सिंह अपने पतिदेव और पूर्वजों के सपनों के साथ तन मन धन से उसी सेवा में लगी हैं जिनके संकल्प नरेन्द्रजीत सिंह जी ने लिए थे। इस कार्य के लिए यति संकल्प नाम से एक बड़ा प्रकल्प  नीतू सिंह ने शुरू किया है। श्रीमती नीतू सिंह जी की दो बेटियां वसुंधरा सिंह और वारिधि सिंह उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका में अपने सनातन मूल्यों के साथ रह रही हैं। इस पारिवारिक परिचय का आशय यह है कि यह परिवार आज भी किसी से भी अभिवादन स्वरूप ‘‘जय सियाराम’’ बोलता है। रायबहादुर विक्रमाजीत सिंह जी से लेकर वसुंधरा और वारिधि तक पांच पीढ़ियों में यह अभिवादन नहीं बदला है। भारतीयत और सनातनता इस परिवार की ऐसी थाती है जो नई पीढ़ी को बहुत कुछ सिखाने योग्य है।
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बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह के कार्यों और उनके सामाजिक सांस्कृति शैक्षिक योगदान में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला देवी का अद्भुत योगदान रहा है। पुस्तक में एक अध्याय उन पर अलग से है लेकिन यहां श्रीमती सुशीला देवी अर्थात् पारिवारिक सम्बोधन में ‘‘बूजी’’ के रूप में पहचान रखने वाली अत्यंत धर्मपरायण और अद्भुत साहस के व्यक्तित्व पर थोड़ी चर्चा बहुत ज़रूरी है। जम्मू कश्मीर राज्य के दीवान बद्रीनाथ जी की बड़ी बेटी सुशीला देवी की जीवन गाथा तत्कालीन भारत की महिलाओं की वीरता, साहस और उच्च सनातन मूल्यों की कथा है। यह तथ्य है कि जम्मू कश्मीर में महाराज हरि सिंह जी के बाद का सबसे बड़ा परिवार दीवान बद्रीनाथ जी का रहा है। दीवान साहब का निधन केवल पच्चीस वर्ष की उम्र में 1922 में हो गया। उसके बाद उनकी धर्मपत्नी जम्मू कश्मीर में दीवाननी विद्यावती जी के नाम से प्रसिद्ध रहीं। उनकी दो बेटियां थी, एक सुशीला देवी और दूसरी पद्मादेवी। सुशीला देवी का विवाह नरेन्द्रजीत सिंह जी से हुआ था और पद्मादेवी का विवाह तत्कापलीन भारत सरकार के विदेश सचिव बलराज कपूर कृष्ण से हुआ था। जम्मू श्रीनगर में अभी भी सुशीला देवी अर्थात् ‘‘बूजी’’ और उनकी बहून पद्मा कपूर जी की बहुत सम्पत्तियां हैं। जम्मू कश्मीर में इस परिवार की सम्पत्तियों, वहां से पलायन और अभी भी शिक्षा संस्कृति और सेवा के क्षेत्र में वहां हो रहे कार्यों पर आगे चर्चा करेंगे।
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यहां यह चर्चा इतिहास और भारतबोध की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में संयुक्त प्रांत के कानपुर जैसे नगर में यदि श्रीब्रह्मवर्त सनातन धर्म महामण्डल जैसे किसी संस्थान की आधारशिला रखने की कोई सोच भी उत्पन्न हुयी तो वह व्यक्तित्व कैसा रहा होगा। स्वाभाविक है कि 1910 का समय भारतीय स्वाधीनता संग्राम का वह काल है जिसके चार वर्ष बाद महात्मा गांधी का भारत में अविर्भाव हो रहा है। इसके छः वर्ष बाद बनारस में पण्डित महामना मदन मोहन मालवीय जी द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अस्तित्व में आता है। ऐसे समय में कानपुर में सनातन धर्म कॉलेज ऑफ कामर्स जैसे व्यावसायिक शिक्षण संस्थान की स्थापना हो जाना स्वयं में एक आश्चर्य से कम नहीं है। आज 1910 में स्थापित श्रीब्रह्मवर्त सनातन धर्म महामण्डल द्वारा संचालित संस्थाओं की संख्या 10 है। ये शिक्षण संस्थाएं केवल कानपुर नगर ही नहीं बल्कि उत्तर भारत में अपनी विशिष्ट पहचान के साथ निरंतर प्रगति के पथ पर हैं। वर्ष 1917 में सनातन धर्म विद्यालय मेस्टन रोड, वर्ष 1917 में ही वीएनएसडी इण्टर कॉलेज चुन्नीगंज वर्ष 1921 में वीएसएसडी कॉलेज नवाबगंज, वर्ष 1971 में पं0 दीनदयाल उपाध्याय सनातन धर्म विद्यालय, वर्ष 1983 में बीएनएसडी शिक्षानिकेतन बेनाझाबर, वर्ष 1996 में बीएनएसडी शिक्षानिकेतन बालिका विद्यालय, वर्ष 1992 में सेठमोतीलाल खेडिया सनातनधर्म इण्टर कॉलेज नवाबगंज, वर्ष 2002 में दुर्गावती दुर्गाप्रसाद सनातन धर्म बालिका विद्यालय आज़ा दनगर, वर्ष 2012 में श्रीमती नारायणी देवी सनानत धर्म विद्यालय तात्यागंज और वर्ष 2012 में ही स्थापित बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह गोपालन केन्द्र तात्यागंज का शैक्षिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और सेवा का योगदान समाज को निरंतर मिल रहा है। इस पुस्तक का शीर्षक संघ सृजन के पुष्प इसीलिए सार्थक लगता है क्योंकि बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह से एक पीढ़ी पहले अर्थात् रायबहादुर विक्रमाजीत सिंह जी से लेकर वर्तमान में वीरेन्द्रजीत सिंह जी और उनसे आगे श्रीमती नीतू सिंह  तथा वसुंधरा औार वारिधि तक आते आते यात्रा केवल सृजन की ही है। आज कानपुर और उसके आसपास स्वास्थ्य शिक्षा और सेवा के भले ही अनगिनत प्रकल्प चल रहे हों लेकिन कोई भी यह कल्पना कर सकता है कि अंग्रेज़ी हुकू़मत के दौर में जब कामर्स जैसे विषय की पढ़ाई मुम्बई, कोलकाता, मद्रास और दिल्ली के अतिरिक्त किसी और जगह पर कोई सोच नहीं सकता था उस दौर में कानपुर में यह व्यवस्था करना कितना कठिन रहा होगा। बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह के जीवन को
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केन्द्र बनाकर लिखी गयी इस पुस्तक के प्रत्येक अध्याय अलग अलग महत्वपूर्ण संदेश लेकर पाठकों तक अवश्य पहुंचने चाहिए। इतिहास की यह यात्रा कथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, प्रखर हिन्दुत्व, सनातन की गहरी जड़ों, राष्ट्रवाद, शैक्षिक क्रान्ति, सेवा भाव, सांस्कृतिक जागरण और महान भारत के प्राचीन भारतबोध को नवीन जीवन मूल्यों से जाड़ने का एक गम्भीर प्रयास है। नरेन्द्रजीत सिंह जी का जीवन हिन्दुत्व और संघ के कार्यों में समर्पण का जीवन रहा है। उनके पुत्र वीरेन्द्रजीत सिंह और उनकी पुत्रवधू श्रीमती नीतू सिंह का जीवन अभी भी उन्हीं मूल्यों को समर्पित है। संघ की स्थापना से लेकर जनसंघ की स्थापना तक और अभी भी उसी क्रम में सेवा से जुड़ा यह परिवार भारतीयता और राष्ट्रबोध का ऐसा उदाहरण है जिससे नयी पीढ़ी को बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है। यह पुस्तक एक परिवार की पांच पीढ़ियों की गाथा या केवल एक व्यक्ति का जीवन परिचय नहीं है। इसके तथ्य और पात्र भारत को विश्वगुरू के पथ पर अग्रसर करने वाले उन सभी तत्वों से नयी पीढ़ी को अवगत कराने वाले हैं जिनको पढ़ने, समझने और अंगीकार करने के बाद का भाव निश्चित रूप से एक ऐसा बोध कराने वाला है जो महान् प्राचीन से वर्तमान को जोड़ने में सक्षम भी है और समर्थ भी। पुस्तक के केन्द्रीय पुरुष बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह उनके पिता रायबहादुर विक्रमाजीत सिंह और श्रीब्रह्मवर्त सनातन धर्म महामण्डल स्वयं में मां गंगा की तरह अपनी पूरी ऊर्जा के साथ जिस अविरल गति से प्रवाहित हो रहे हैं उनमें यह प्रतीति संभव नहीं कि उन पिता पुत्र और संस्था को विराम की स्थिति में देखा जा सके। पुस्तक के अलग अलग अध्याय अलग अलग तथ्यों के साथ इस रूप में प्रस्तुत किये गए हैं जिनके माध्यम से बीते लगभग सवासौ वर्षों का एक ऐतिहासिक अवलोकन संभव हो सके।
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