कहीं दूर इक मुसाफिर भटकता है अपनी मंजिल को पाने को, वो ना जाने कितनी ही मसक्कतें करता है कि मिल जाए उसे उसकी मंजिल का पता… के कोई आए और बता दे या फिर साथ ले चले उसे उसकी मंजिल तक जिससे उसे यूं ही भटकना ना पड़े.
उसी पल कुछ ही दूरी पर, इक थका-हारा इंसान अपनी पीड़ा छिपाए खामोश बैठा सोचता है कि कहीं से कोई मुसाफिर आ जाए जिसे मैं पहुंचा सकूं उसकी मंजिल तक, जिससे उसे एक वक्त की रोटी भी नसीब हो सके.
कहीं-ना-कहीं, कोई-ना-कोई…. भटकते रहते हैं भीड़ में एक दूसरे के साथ के लिए… लोग निर्भर रहते हैं एक-दूसरे पर, लेकिन उन्हें ये पता नहीं होता है कि उनके लिए कोई तो है इस भीड़ में जो उसे पहुंचा सकता है उसे उसकी मंजिल तक. वहीं दूसरी ओर कोई बाट जोह रहा होता है, कि कोई आए जिसे उसकी मंजिल का पता दे सकूं या उन्हें उनकी मंजिल तक पहुंचा सकूं.
मेरी लेखनी का तात्पर्य है…
मुसाफिर बने सफर वाली जिंदगी में हर पल ये ध्यान रखें कि हर कदम पर कोई-ना-कोई आपसे जुड़ा होता है, आप अकेले नहीं हो जो मुसाफिर बन भटकता फिर रहा हो.