किया जो बंद मैं आंखें अपनी
आने लगे ख्वाब उनके,
ना जाने कितनी-कितनी.
कुछ ख्वाब ऐसे थे मानो
रात गहरी हो जैसे,
खड़ा मैं हूं किनारे समंदर के जैसे.
एक उजली किरण दिखींं
आते करीब मेरे,
वो आईं, अपनी घटा बिखराईं
दिखा इक चेहरा, चाँद हो जैसे.
थीं रौशनी इतनी
रात हो पुर्णिमा की जैसे,
दिख रहा समंदर स्वर्णिम के जैसे,
बेह रही थी हवा ऐसे,
बिखेर दी गई हो खुश्बू
फिज़ा में जैसे.
करीब वो यूं आए लगा मानो,
मिली हो खुशी मुझे सारे जहां की
मेरे दिल थीं आवाज आई,
इतने दिनों तक तुम कहां थीं.
होती रहीं बातें हमारी यूं हीं,
ना जाने कितने ख्वाब संजोए मैंने
ख्वाब में हीं.
गनीमत, वो पल भी आया
उजड़ गए ख्वाब सारे मेरे,
ना वो मेरी बन पाई
ना मैं उनका बन पाया.
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