अस्पताल में खदेरन चाचा…जय हो….!!

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गांधीजी को चम्पारण आए सौ बरस होने को हैं. वैसे तो हमारा प्रदेश उत्सवधर्मी है लेकिन इस अभूतपूर्व उत्सव को लेकर कई बुजुर्ग लोगों में गांधीजी के प्रति प्रेम उमड़ पड़ा.वैसे भी आजकल की पीढ़ी को अपने महापुरुषों या अपने सांस्कृतिक धरोहरों से कोई खास मतलब नहीं है, उन्हें तो बस पढ़ाई करके डॉक्टर या इंजीनियर बनने की चाहत है.

खैर हमारे यहां भी खदेरन चाचा के भीतर गांधीवाद या यूं कहें कि गांधीत्व का प्राकट्य हो गया. वैसे तो चाचा जी को जब भी छोटी-मोटी बीमारी होती तो निजी चिकित्सकों के पास जाते और चंगे होकर वापस लौटते, लेकिन गांधीवाद के प्राकट्य के चलते उन्हें अपने इस कृत्य पर ग्लानि हुई और उन्होंने सोचा कि इससे गांधी बाबा बहुत दुखी होते होंगे कि मनुष्य सरकारी अस्पताल के रहते हुए निजी चिकित्सकों की सेवा क्यों लेता है. इस विचार के आते ही उनके दिल में खयाल आया कि अब से जब बीमार पडूंगा तब सरकारी अस्पताल में हीं जाउंगा.

खैर चचा की यह इच्छा भी पूरी हो गई और शादी ब्याह के इस मौसम में किसी बारात में ज्यादा खा लिया. अब नेताजी का खजाना तो है नहीं कि जितना मर्जी भर लो किसी को खबर भी न हो. वह तो खदेरन चाचा का पेट था, ओवरलोड होने के कारण पेट गड़बड़ हो गया. पानी चढ़ाने की नौबत आ गई. अब क्या था, चाचा के परम प्रिय पुत्र मेघू ने उन्हें किसी निजी डॉक्टर के क्लिनिक में भर्ती कराया. चाचा का गांधीवाद जाग उठा उन्होंने सुपुत्र से कहा कि यदि तू मेरा सच्चा पुत्र है तो मुझे सरकारी अस्पताल में ही लेकर चल, आखिर वहां भी तो डॉक्टर है, इतनी अच्छी सुविधा है, वहां जाने से क्यों हिचकता है, ले चल मुझे सरकारी अस्पताल की शरण में. मेघू ने अपने पिताजी को समझाने का बहुत प्रयत्न किया, लेकिन उनके ऊपर तो गांधी जी की आत्मा सवार थी, बेचारे माने नहीं. अब बेटा ठहरा पितृ सेवक. पिताजी की इच्छा का सम्मान किया और उन्हें उन्हें सरकारी अस्पताल में ले गया.
चाचा भले बीमार थे, लेकिन उत्साह में थे. आखिर गांधी जी की बातों का थोड़ा सा पालन करने का मौका तो मिला.

अस्पताल में जाते हीं डॉक्टर साहब की खोज शुरू हुई, पता चला कि डॉक्टर साहब अभी नहीं है, किसी परम प्रिय मित्र से मिलने गए हैं, थोड़ी देर में आने वाले हैं. इधर चचा की हालत खराब हो रही थी. इसलिए अस्पताल में मौजूद बाहर के किसी कर्मचारी ने चचा को देखा और पानी चढ़ाने की सलाह दी अब सरकारी अस्पताल में पानी भी नहीं था. खदेरन चाचा को यजमान की तरह जेब ढीली करनी पड़ी, बेचारे सरकारी अस्पताल के भरोसे आए थे, उन्हें यह लगा था कि पानी चढ़ाने वाला आदमी सरकारी है, लेकिन उसने जब अपनी फीस मांगी तब उन्हें आश्चर्य हुआ. थोड़ी देर में चाचा थोड़े ठीक हुए. पानी चढ़ाने वाले ने कहा था कि एक बार वरुण देव की कृपा हो जाए तो तबीयत ठीक हो जाएगी. इस बात का इंतजार होता रहा कि कब वरुण देवता पेट में प्रवेश करें, लेकिन वरुण देवता कोई सरकारी कर्मी तो है नहीं कि कुछ ले दे कर पेट में घुस जाएं, वह तो तभी घुसेंगे जब उन्हें घुसना होगा. इधर चचा ने देखा कि बगल वाले बेड पर एक कुत्ता आकर सोया है. देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ कि इंसान की बजाए यहां कुत्ता क्यों सोया है, लेकिन फिर उन्हें याद आया कि यह गांधी का चंपारण है, गांधी जी पशु प्रेमी थे और शायद इसीलिए अस्पताल में जहां-तहां आवारा कुत्ते, बकरी और सूअर दिख रहे हैं.

खैर, इधर-उधर सोचते-सोचते शाम हो गई और मच्छरों ने धावा बोला, उनकी मधुर गुनगुनाहट सुनकर चचा तिलमिला उठे, तुरंत पुत्र को आज्ञा दी कि जाकर इन मच्छरों के लिए मच्छर अगरबत्ती की व्यवस्था की जाए. पुत्र भले आज्ञाकारी था, लेकिन था तो कलयुगी, सो विवाद पर उतर आया. तुरंत याद दिलाया कि मैंने तो कहा ही था कि फलां डॉक्टर साहब के यहां चलिए आप ही न नहीं माने. लेकिन अब पिताजी की आज्ञा का पालन तो करना ही था, बेचारा जाकर कहीं से मच्छर अगरबत्ती की व्यवस्था कर लाया.

अब थोड़ी देर में रात हो गई और काफी प्रतीक्षा के बाद चचा पर वरुणदेव की जोरदार कृपा हुई. पानी चढ़ाने वाले भाई ने केवल छोटी कृपा की बात की थी, लेकिन चचा पर बड़ी कृपा भी एक साथ हो गई.अब क्या था, शौचालय की जरूरत आन पड़ी. परेशान पुत्र ने जाकर अस्पताल के शौचालय की स्थिति देखी तो वहां से उल्टे पांव लौट आया. चाचा ने जिद की कि मुझे वहीं ले चलो. इधर उधर नहीं जाना चाहिए. चाचा न माने और खुद ही शौचालय में घुस गए. वहां की स्थिति उन्होंने जब अपनी आंखों से देखी तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि शौचालय एक ही जगह है तो लोगों ने चारों ओर इसका प्रयोग क्यों कर डाला है. खैर, भीतर से बचते-बचाते चचा जैसे-तैसे बाहर निकले और पुत्र को कहा कि पता करे कि यहां दूसरा शौचालय कहां है, क्योंकि जिस वरुण देवता की प्रतीक्षा में चाचा लगे थे उनकी बड़ी वाली कृपा धीरे धीरे तेज होती जा रही थी. मेघू ने पता किया तो पता चला कि अस्पताल के दूसरे छोर पर एक जगह कुछ निजी लोगों ने शौचालय की व्यवस्था की है. हालांकि निजी का नाम सुनते हीं चचा थोड़ा हिचक गये, लेकिन सोचा कि कोई बात नहीं, है तो अस्पताल के अंदर हीं. इसलिए अब जल्दी-जल्दी वहां पहुंचा गये. लेकिन वहां जाने पर पता चला कि रात बहुत हो गई है इसलिए वे लोग भी सब बंद करके अपने घर चले गए हैं. अब खदेरन चाचा की स्थिति धीरे-धीरे खराब होती जा रही थी, वरुण देवता की कृपा अब जरूरत से ज्यादा ही बढ़ गई, जिसे संभालना अब मुश्किल हो रहा था. इसलिये अस्पताल से बाहर भागे.

थोड़ी दूर पर एक बाजार में शौचालय था वहां दौड़े-दौड़े चाचा पहुंचे, लेकिन रात अधिक होने के कारण उसने भी शौचालय बंद कर रखा था. बड़ी आरजू मिन्नत की गई, तब कहीं जाकर उसने शौचालय चाचा के लिए खोल दिया. शौचालय खुलते हीं चाचा धड़धड़ाते शौचालय में घुसे और जब शौचालय से बाहर निकले तब हाथ मुंह धो कर प्रसन्नता से पुत्र के सर पर बड़े प्यार से हाथ फेरा और कहा कि बेटा तू ठीक ही कहता था, भले ही गांधी बाबा सरकारी काम को ज्यादा तवज्जो देते हो, लेकिन यह मेरी भूल थी कि तेरी बात नहीं मानी और सरकारी अस्पताल के चक्कर में पड़ गया. आज अगर इस बेचारे ने बात नहीं मानी होती तो बड़ी मुश्किल में पड़ते. आज अगर गांधी बाबा हमारे बीच होते तो वह भी इस स्थिति को देख कर रो रहे होते, अच्छा है कि आज वे हमारे बीच नहीं है. जा बेटे अस्पताल जा और वहां से सामान लेकर आ, मैं यहीं खड़ा हूं. इधर से ही घर को निकलते हैं, अब दुबारा मैं वहां कदम नहीं रखूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए.

इतना कहते ही चचा के मुंह से बरबस ही कुछ पंक्तियां निकल पड़ी:


“बढ़िया बा गाँधी बाबा,रउअा ना जियत बानी,
स्वर्गे में अपन लुगरी, अब॒ रउआ सीयत बानी.”




लेखक: प्रशांत सौरभ

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