एक पहेली जिंदगी बनी है काफिर
उधेड़बुन काफी है ज़ेहन में मेरे
ना मिल रही निशान मंजिल की रास्तों के सफर में
फासले काफी हैं दरमियां में लेकिन
ना साथ है कोई ना कोई सहारा
फलसफा मुहब्बत की दूरियों से बनीं है
काश ! मंजिल की पहली सीढ़ी दिखे
ओझल नैनों में सपने कईं हैं
ना उजाला है ना ही कोई सवेरा
आशियाना मेरा उजड़ा है अब तो
बैठ दरमियां में तेरे सोना है मुझको
मेरे दिल की तमन्ना यही है
इक तू ही है मंजिल मेरी तू ही किनारा
तेरे बिना यहां कौन है हमारा
तू ही है वो जो जानता है मुझको
पराये जहां में अपना मानता है मुझको
तेरे बिना गंवारा ना कोई जहां में
तेरे बिना अब जाऊं कहां मैं…!
बता दो मुझे…..??
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