रात के क़रीब पौने एक बजे अपनी पदस्थापना स्थल के ट्रांजिट-हॉस्टल के अपने कमरे में वापस आकर मैं अपने जूते उतार रहा था। जूतों पर सड़क से लगा गरम खून अब पूरी तरह से ठंडा पड़ चुका था। शरीर भी बुरी तरह टूट रहा था। अब अपने गर्म कम्बल और नरम बिस्तर से दूर हर एक मिनट घंटों के बराबर लग रहा था। नहाने की हिम्मत मुझमें बाक़ी न थी। सो मैंने फटाफट कपड़े बदले, मुँह हाथ धोये और ख़ुद को अपने बिस्तर के हवाले कर दिया।
सोते-सोते ही आज बिताये पिछले कुछ घंटे दिमाग में कौंधने लगे। कुछ घंटों पहले सारा काम निपटा के मैं अपने पूरे कार्यालय कर्मचारियों के साथ मेरे ही कार्यालय के एक अन्य कर्मचारी की बिटिया की शादी के आमंत्रण पर जाने निकला था। साथ में कुछ महिला कर्मियों को भी जाना था और उनकी तैयारी में लगने वाले अधिक समय को देखते हुए हमने बैठक व्यवस्था ऐसी तय की कि, एक बड़ी गाड़ी में महिलायें बहुसँख्या में थीं व उनके साथ चार अन्य पुरुष कर्मचारियों को भेजा जाना था। उनकी तैयारी में लग रही देरी के मद्देनज़र उनको अतिरिक्त समय देने के लिए मैं अपने साथ अन्य तीन पुरुष कर्मचारियों को लेकर कार से पहले ही रवाना हो लिया।
रास्ता बहुत जल्दी कट रहा था। इधर-उधर की बातें, निंदारसपान करते मामला बड़ा मस्त चल रहा था कि अचानक रास्ते में सड़क पर गाड़ियों का बहुत लंबा रेला दिखाई दिया। आगे बढ़ने पे पता चला कि ‘रोड एक्सीडेंट’ में ‘ऑन स्पॉट डेथ’ हो गयी है। भीड़ जमा थी। लोग आक्रोशित थे। सारे हास्य-विनोदमय माहौल पर यकायक गंभीरता के काले बादल मंडराने लगे। भीड़ की हरकतें बड़ी उग्र थीं मोटरसाइकिल सवारों की पिटाई हो रही थी। गाड़ियों के शीशे तोड़ने के कार्यक्रम पर भीड़ के किसी नेता ने मुहर लगा ही दी थी और कार्यक्रम शुरू होने वाला ही लग रहा था। ये देखते हुए मैं फटाफट बाहर निकल गया और अपनी कार को वापस पीछे भिजवाया। अपने साथ दो लोगों को लिया और हम भीड़ के केंद्र की ओर किसी स्थानीय सरकारी नुमाइंदे की खोज-बीन करते बढ़ने लगे। आगे की ओर बढ़ने पर अंधेरे में एक प्रधान-आरक्षक दिखा अपना परिचय बताने पर उसमें भी कुछ जान आ गयी। पूछताछ करने पर उसने घटना की सरसरी जानकारी दी व इतने में एक और आरक्षक वहाँ आ गया। अब मैं, मेरे साथ दो युवा और लॉ एंड आर्डर के मामले में अनुभवहीन कर्मचारी, एक प्रधान आरक्षक और एक आरक्षक कुल पाँच के कन्धों पर मोर्चा रोक के रखने की जवाबदारी थी।
भीड़ का शोरगुल इतना था कि अगल-बगल में खड़े लोगों को भी बातें स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहीं थीं। प्रधान-आरक्षक को किनारे बुलवाकर मैंने तात्कालिक रूप से भीड़ के आस-पास घेरा डाले अन्य राहगीरों और वाहन मालिकों को एक तरफ़ जाकर हटाने निर्देशित किया दूसरी ओर हम सब खुद इस काम में जुट गए ताकि भीड़ की वास्तविक सँख्याबल का एक मोटा-मोटा अंदाज़ हो सके। इसी बीच सम्बंधित एसडीएम व तहसीलदार को और पुलिस कण्ट्रोल रूम को सूचना दे दी गयी। जल्द ही पास ड्यूटी कर रहे एक पुराने सब-इंस्पेक्टर मोटरसाइकिल से आये। अब मेरे साथ एक अनुभवी साथी था जो ऐसी स्थितियों से पहले भी गुज़र चुका था।
आक्रोशित भीड़ जो हर दिशा की ओर उत्पात मचाने बेचैन दिख रही थी का ध्यान बाकी ओर से हटाने मैंने स्वयं का परिचय सार्वजनिक कर खुद को “आकर्षण के एक सामान्य केंद्र” के रूप में पेश कर दिया। अब भीड़ के सामने विरोध जताने एक प्रतिध्रुव (एंटीपोल) था, जिसके सामने वह अपनी बात रख सकती थी। ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगा सकती थी। अब मान-मनौव्वल का कार्यक्रम शुरू हुआ। हमारा सबसे पहला उद्देश्य ‘डेड-बॉडी’ को सड़क से उठाकर पोस्टमॉर्टम के लिए रवाना करना था ताकि यातायात फ़िर से सामान्य हो सके। इसके लिए ज़रूरी था कि भीड़ इस बात के लिए राज़ी हो जाए।
चारों ओर से भीड़ की मिली-जुली आवाज़ें, कुछ मांगें, कुछ व्यवस्था को कोसती और कुछ ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद के बीच मैंने भीड़ की मांगें किसी एक से जानने की कोशिश की। उनकी तरफ़ से जो भी एक आगे आकर अपनी बात रखना चाहता है उसे सामने आने की अपील की। ऐसी भीड़ में सर्वसम्मत नेता का आना हालांकि मुश्किल था पर एक से शुरू करके ऐसे कई नेता एक के बाद एक आते गए व अपनी मांगें गिनाते गए।
– स्पीड ब्रेकर बनना चाहिए.. (एक ने कहा)
-तीन-तीन के सेट वाला स्पीड ब्रेकर बनना चाहिए.. ( ऐसे ही एक नेता की आवाज़ आई)
-चार अलग-अलग जगहों पर स्पीड ब्रेकर बनेगा..
मेरे घर के सामने बनना चाहिए, मेरे घर के सामने बनना चाहिए, वहाँ सबसे ज़रूरी है..
( ऐसी दहाड़ के साथ 5-6 अलग-अलग आवाज़ें आईं )
-रेडियम वाला स्पीड ब्रेकर बनेगा कका!! ( एक साहब ने कहा)
– हौ कका सफ़ेद भी और पीला रेडियम भी! ( दूसरे साहब ने हुंकारी भरी)
-और स्पीड ब्रेकर कभी टूटना नहीं चाहिए, चाहे कोई भी क्यों न आये। कोई बड़ा नेता आता है तो आपलोग स्पीड, ब्रेकर तोड़ देते हैं। ( एक बालकपन की दहलीज़ पार कर रहे नवयुवक जिसकी मूंछों के बाल लगभग झाँकने लगे थे ने पूरे आवेग से मेरे सामने आकर अपने चेहरे पर गंभीरता और तैश दोनों के मिश्रित भाव से कहा, मैंने हल्की सी मुस्कान के साथ उसका पूरा आवेग सोखते हुए स्वीकृति में अपना सर हिलाया)
– अरे बेटा! बिरेकर के दुनु पार मा बोरड घला लगवा देबे। (एक बुज़ुर्ग ने मेरे कान में कहा)
-अवैध शराब दुकान बंद करवाओ.. (कुछ महिलाओं ने बुलंद आवाज़ में कहा, साथ ही खड़े कुछ पुरुषों ने भी महिलाओं के संख्याबल को देखते हुए अनमने भाव से हामी भर दी)
(कई मदिरापान किये लोग भी वहाँ खड़े थे उनमें से अधिकांश जो होश में नहीं थे सियारों की तरह हर बात पे हुआँ- हुआँ किये जा रहे थे और मदिरापान के बावजूद भी जिनके होश ठिकाने थे ऐसा पुरुष वर्ग मांग की गंभीरता कम करने और इस प्रस्ताव के ध्वनिमत से पारित हो जाने के भय से बिलकुल शांत था।)
-स्पीड ब्रेकर जब तक नहीं बनेगा तब तक लाश नहीं उठेगी। ( लोग चीख रहे थे)
-लाश तभी उठेगी जब रोड के दोनों तरफ़ रेडियम लगेगा, लाश तभी उठेगी जब दोनों तरफ़ खम्बों पर लाइट लगेगी।
-लाश तभी उठेगी जब मुआवज़ा मिलेगा। ( एक तथाकथित संवेदनशील आवाज़ आई)
ऐसी ही कई मांगें उन्हें उठानेवाले नेताओं की समझ, ज़रूरत और उनके अनुगामी वर्ग के हितों के अनुसार आती रहीं संशोधित होती रहीं फिर से आती रहीं। नई मांगें आती रहीं कभी घूम के फिर से पुरानी मांगें ही ज़्यादा संजीदगी से आने लगीं।
इन सबके बीच खड़े होकर हम केवल आग्रह, विनती व स्वीकृति की मुद्रा में चेहरे पर शांत भाव लेकर खड़े रहे क्योंकि यही परिस्थिति की मांग थी और हमें जितनी जल्दी हो सके यातायात सामान्य करना था। इस ट्रैफिक में एक गर्भवती को लेकर एम्बुलेंस भी आ फँसी थी जिसे वैकल्पिक रास्ते से भेजा गया।
मेरे चेहरे पर साशय धारण किये शांत भाव थे। पर इस बाहर के शांत चेहरे के भीतर मेरे अंदर सब-कुछ उथल-पुथल हो चुका था।
“लावारिश पड़ी लाश को गिद्ध, कौवे, कुत्ते नोच-नोच कर खा गए।” “मन्नू भंडारी जी” के उपन्यास “महाभोज” की ये पंक्तियाँ बार-बार ज़ेहन में घूम रहीं थीं। गिद्ध, कौवे, कुत्ते सभी के प्रतिबिम्ब मेरे मस्तिष्क में बार बार तैर आते थे।
तथाकथित ‘संवेदनशील-भीड़’ की सभी मांगें मानने और पूरा करने का आश्वासन देने के बाद उस लाश को उठाकर वाहन पर रखवाया गया, सड़क पर फ़ैले ख़ून जो भीड़ और वहाँ खड़े लोगों के कारण और फ़ैल चुका था पर धूल डाल दी गयी। भीड़ में से कुछ लोगों के हाथ-पैर, कपड़ों पर भी धूल पड़ गयी, पर सभी धूल झाड़ के अपने-अपने रास्ते निश्चिन्त भाव से चलने तैयार थे। लाश को सड़क से उठाने देने का सौदा पट चुका था। महाभोज की समाप्ति का सा माहौल था। उत्साह था ‘संवेदनशील-भीड़’ के चेहरों पर। बकौल ‘संवेदनशील-भीड़’ आखिर ये उन्होंने उस लाश के लिए ही तो किया था। लाश गाड़ी में पड़ी एक दिशा की ओर जा रही थी, ठीक दूसरी दिशा की ओर ‘संवेदनशील-भीड़’।
इन सभी के बीच मैंने भी ट्रैफिक से अपनी कार निकलवाई और ये सारे अनुभव समेटता हुआ अपने तय कार्यक्रम में शरीक़ होने निकल पड़ा।
वहाँ कार्यक्रम में वे सभी महिला व पुरुष कर्मचारी जिन्हें तैयार होने का अतिरिक्त समय देने हम पहले ही निकल चुके थे वे कार्यक्रम में पहले से ही उपस्थित मिले और पहुँचते ही उनकी व्यंग्य करती आँखों से सामना हुआ। उनसे पहले निकलने की ‘असंवेदनशीलता’ की भयंकर भूल का परिणाम ‘संवेदनशील-भीड़’ के रूप में सामने आ चुका था।
कार्यक्रम समाप्त कर पूर्व तय बैठक व्यवस्था के अनुरूप ही पदस्थापना स्थल वापसी हुई। रात के क़रीब पौने-एक बजे अपनी पदस्थापना स्थल के ट्रांजिट हॉस्टल के कमरे में वापस आकर मैं अपने जूते उतार रहा था।
लेखक: “बिलासपुर; एक शहर, एक कहानी” फेसबुक पेज के एडमिन हैं.