फिल्म समीक्षा:
#हरामखोर
अनुराग कश्यप से निर्देशन के गुर सीखने वाले श्लोक शर्मा पहली बार स्वयं निर्देशक की भूमिका में हैं।
उन्होंने भारतीय समाज के एक अत्यंत विवादित विषय को अपनी फिल्म का आधार बनाया है जिसे समाज अवैध या अनुचित करार देता आया है।
°हरामखोर की कहानी है
मध्य प्रदेश के एक सरकारी स्कूल के अध्यापक श्याम टेकचंद (नवाज़ुद्दीन) और उसकी 15 वर्षीय शिष्या संध्या (श्वेता त्रिपाठी) के अवैध संबंधों की।
शायद यही वज़ह थी की श्लोक को अपनी पहली फिल्म जनता के सामने प्रदर्शित करने के लिए कई कानूनी दांव पेंच लगाने पड़े और चार साल का लंबा इंतजार करना पड़ा।
इस बीच हरामखोर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सवों में जम कर तारीफ और अवार्डस बटोरती रही और अब चार साल बाद रिलीज़ हो रही है।
बेहद कम बजट में बनी यह फिल्म एक प्रेम त्रिकोण कही जा सकती है।
जिसकी मुख्य नायिक संध्या हैं जिसकी मां नहीं हैं और पिता टिपिकल पुलिसकर्मी हैं जो सुबह नश्ता करके घर से निकल जाते हैं और शाम को शराब के नशे में धुत्त वापिस लौटते हैं।
ऐसी परिस्थिति में संध्या बेहद अकेला महसूस करती है,जिसे अपने स्कूल और ट्युशन टीचर श्याम टेकचंद का भावनात्मक सहारा मिलता है।
मास्टर श्याम शुरू से ही रसिकमिज़ाजी हैं जो अपनी एक पूर्व छात्रा सुनिता से विवाह कर चुके है और अब उनकी संध्या पर विशेष नज़र है।
श्याम ,संध्या पर विशेष ध्यान देता है जिस कारण संध्या- श्याम में गुरू-शिष्या से ज्यादा संबंध स्थापित हो जाते हैं।
श्याम का किरदार फिल्म के नाम को सार्थक बनाता है,हमारे समाज में वाकई ऐसे हरामखोर हैं जो गुरू शिष्य के पवित्र रिश्ते पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं।
इस कहानी के सूत्रधार हैं दो दोस्त ; कमल (इरफान) जो मन ही मन संध्या से प्यार करता है,उससे शादी करने की प्रबलइच्छा रखता है और कमल की प्रेम कहानी को अंजाम तक पहुंचाने के लिए साथ देता है उसका जिगरी दोस्त मंटू (मोहम्मद समद)।
जब जब पर्दे पर कमल और मंटू आते हैं तो आप ठहाके लगाने को विवश हो जाएंगे।
इन दोनों बाल कलाकारों ने अपने अपने किरदार से कहानी में जान फूंकने का काम किया है।
नाबालिग प्रेम और गुरू जी की रंगीन मिज़ाजी का दुःखद अंत इस फिल्म की सीख कही जा सकती है।
नवाज़ुद्दीन की मंझी हुई अदाकारी आपको लगभग 90 मिनट बाँधे रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी वहीं मसान से फिल्म जगत में आने वाली श्वेता त्रिपाठी भी नवाज़ुद्दीन जैसे कलाकार के सामने कहीं भी डिगती मालूम नहीं होती हैं।
फिल्म कहीं भी मुद्दे से भटकती नहीं है हालंकि एडिटिंग थोड़ा सी अटपटी अवश्य लग सकती है।
स्क्रिप्ट पर और काम किया जा सकता था।
गानों का विशेष प्रयोग नहीं किया गया है।
निर्देशन लाज़वाब है।
महज़ 16 दिन में हरामखोर की शूटिंग पूरी करने वाले कलाकारों का समर्पण इस फिल्म में बखूबी नज़र आता है कि किसी ने भी पैसों के लिए इस फिल्म में काम नहीं किया है।
₹50 लाख की धनराशि जनता द्वारा चंदे से इकट्ठा कर यह फिल्म बनाई गई है।
यदि आपको लीक से हट कर फिल्में देखना पसंद हैं और आम जीवन को पर्दे पर देखने के शौकीन हैं तो
हरामखोर आपके लिए ही है।
ज़रूर देखने जाएं।
रिपोर्ट / आनंद श्रीवास्तव