बिहार में बहार है, देश के अच्छे दिन भी आ गए हैं और हां जिला मुख्यालय में भी कुछ ऐसा ही माहौल है । ए भाई कंफ्यूजिआईये मत, हम इंसानों की बात नहीं कर रहे हैं। दरअसल बरसात का दिन है और इंसानों के लिए शुरू से ही डायलॉग और हास परिहास का विषय बने मच्छरों के लिए सच में बाहर आ गयी है। अब देखिए ना, देश में चिकनगुनिया, मलेरिया, डेंगू और ना जाने कैसे-कैसे देशी और विदेशी रोग चलन में आ रहे हैं । ऐसा लगता है कि रोगों में भी होड़ मची है एक-दूसरे से ज्यादा घातक कहलाने की। केवल 2016 की बात करें तो मलेरिया से अब तक चार लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं, जिनमें जुलाई महीने तक 119 लोगों की मौत हो चुकी है।
वैसे बेतिया में भी हर चौक चौराहों पर गलीया मोहल्लों में मच्छरों को बातचीत करते देखा जा सकता है। अभी कल मुझको एक अजीब वाकया नजर आया। मैं तीन लालटेन चौक पर खड़ा था। तीन लालटेन चौक तो आप जानते ही होंगे। अरे वही चौक जो जाम के लिए पूरे बेतिया में प्रसिद्ध है । घंटों निकल जाते हैं कुछ फर्लांग की दूरी तय करने में। बगल में बजबजाती नालियां, महान कांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह के मूर्ति के घेरे के बगल में कूड़े का ढेर । हां, तो मैं वही खड़ा था, तब तक मेरे कानों में एक मधुर संगीत की धुन सुनाई पड़ी, समझते देर न लगी की आदि काल से ही आतंक का दूसरा पर्याय बने मच्छरों का यहां स्वर्ग है। दोनों आपस में हाल ही में श्रीलंका के मलेरिया मुक्त घोषित हो जाने पर अपना रोष प्रकट कर रहे थे । वहीं बेतिया के नगरपालिका को धन्यवाद भी दे रहे थे कि बेतिया को मच्छरों के लिए स्वर्ग जैसा बनाने में उनका अतुलनीय योगदान है। अब क्या है कि अपना भारत भी मलेरिया से मुक्त हो गया होता, लेकिन हमारे देश के सफेदपोश मच्छरों ने ऐसा होने ही नहीं दिया। वे तो आपस में लड़ने-झगड़ने और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में भी ही व्यस्त रहे। उनकी व्यस्तता का लाभ पारंपरिक मच्छरों ने उठाया और जनता को अपने जहरीले डंक से इस दुनिया के मोह-माया और दुखों से मुक्ति दिलवाने में योगदान देते रहे। जनता तड़पते-तड़पते मरने को विवश होती रही, लेकिन सफेदफोश मच्छरों को कोई फर्क नहीं पड़ा। हां तो मैं उनकी बातचीत में खो सा गया था वे आगे कह रहे थे की मच्छरों के लिए बेतिया सबसे सुरक्षित जगह है हमें अपने समस्त परिजनों को भी यहां बुला लेना चाहिए तब तक दूसरे मच्छर ने जवाब दिया कि ठीक ही कहते हो, दरअसल कुछ वर्षों पहले एक मशीन देखी थी, शायद उसे फागिंग मशीन कहते हैं शहर में जहां तहां इसका इस्तेमाल भी हुआ था, तब तो लगता था की सारे मनुष्य हमारे दुश्मन बने हैं, लेकिन तब तक पता नहीं कहां से इन्हे सद्बुद्धि आई और तब से लेकर आज तक वह मशीन हमें देखने को नहीं मिली । बातचीत के क्रम में दो चार मच्छर और आ गए और बीच में बात काटते हुए बोले कि अरे उस समय तो ऐसा लगता था कि हमारा मूल ही बेतिया से खत्म हो जाएगा, लेकिन भगवान भला करे यहां की नगरपालिका का। थोड़ी चर्चा के बाद मच्छर अपने अपने हिसाब किताब में लग गए कि आज कितने लोगों को काटा, कितनों का खून चूसा, कितनों को बीमारी फैलाई। मैं उनकी बात सुन यथार्थ का अनुभव करने लगा और वहां से आगे बढ़ गया।
रास्ते में मैंने यही सोचा कि वर्तमान स्थिति के हिसाब से महात्मा गाँधी की गांधीगिरी पर अहिंसक तौर पर चलना ही बुद्धिमानी है। गाँधीजी की प्रार्थना पर गहरी आस्था थी और यही प्रार्थना रक्त-चूषक अँगरेजों से कर-करके उन्होंने देश को आजाद करा लिया। जिसके झंडे तले कभी सूरज अस्त नहीं होता था, उस सत्ता को वापस पश्चिमास्त कर दिया। ऐसी ही प्रार्थना शक्ति से मच्छरों को उनके मूल स्थान पर लौटाया जा सकता है।
भाई साहबजी, मैं इसी गाँधीगिरी में लगा गा रहा हूँ ‘मच्छर कब जाओगे घर से, मच्छर जी कब जाओगे घर से…।’ आप यही प्रार्थना शुरू कर दें। क्योंकि आप बेतिया में है और यहां नगर पालिका काम की कम और शोभा की वस्तु ज्यादा बनी है। क्योंकि अभी विज्ञान मच्छरात्मा के खात्मे तक नहीं पहुँचा है। इसलिए जहाँ विज्ञान नहीं वहाँ ज्ञान से काम लें। चैन से सोना है तो जाग जाएँ और गाएँ, ‘मच्छर कब जाओगे घर से’।