एक कानून तो ढंग का तुमसे बन नहीं सका,
और देश चलाने की बात करते हो |
संसद में क्यूं व्यर्थ बैठ कर ,
समय अपना बर्बाद करते हो |
जब भी कोई जुर्म होता है ,
एक कानून और नया बना देते हो |
सजा देने की जब भी हम बात करते हैं ,
तो सालों – साल इन्तजार करा देते हो |
मुजरिम को अब डर नहीं कानून का ,
वो तो बैखोफ जुर्म करता रहता है |
और जब बात पहुंचती है तुम तक , ऐ कानून के रखवालो ,
तुम अपनी कानून की किताब के , कुछ पन्ने और बड़ा देते हो |
कितनी ही बहस हुई , जलसे हुए ,
अनसन हुए , मगर तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता ,
मगर जब बात आती है तुम्हारी कुर्सी पर ,
तो तुम राजनीती के कुछ दाव – पेंच और खेल जाते हो|