सोशल मीडिया पे बैठकर कितना आसान है गरमा-गरम बहस करना( मैं भी करता हूँ)। बुद्धिजीवियों की बाढ़ सी आ गयी है हमारे समाज में लगता है । अमूर्त से अमूर्त विषय पर पुरज़ोर परिचर्चा, क्लिष्टतम विषय भी वस्तुनिष्ठ प्रतीत होने लगता है और बेहद वस्तुनिष्ठ विषय भी अमूर्त सा बन जाता है। और फ्रेंड लिस्ट की संख्या, लाइक्स और कमेन्ट्स से लोकप्रियता का पैमाना गढ़ा जाता है। निजी से निजी अनुभवों को सार्वजनिक कर देने की होड़ सी लगी है। जिस विषय से कोसों दूर तक का भी कोई वास्ता नहीं उसका भी सामान्यीकरण कर दिया जाता है कई बार। कई स्थितियों में सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसे विषयों का जानबूझ कर चयन किया जाता है जो अधिक से अधिक लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित करे। लोगों को उस विषय में और परिचर्चा में भाग लेने बाध्य करे।
हाल ही में #बस्तर के बारे में ऐसी ही परिचर्चायें देखने मिल रही हैं। कल्पना और हक़ीक़त में अंतर है, उतना ही जितना “स्वानुभूति” और “सुनी सुनाई बातों” के आधार पर बनायीं गयी धारणा में। बस्तर पर और वहाँ के लोगों ( जिन्हें बुद्धिजीवियों को “आदिवासी” शब्द से सम्बोधित करके ही सन्तोष मिलता है) पर, वहाँ शासकीय कर्मचारियों, पुलिस और सशस्त्र बलों की दशाओं पर वो ही “ज़मीनी टिप्पणी” कर सकने की स्थिति में हैं जिन्होंने बस्तर को जिया है ( ऐसा कहते हुए मैं किसी के टिप्पणी करने के अधिकार को सीमित नहीं कर रहा, एक सुनी सुनाई धारणा आधारित टिप्पणी और अनुभवजन्य ठोस टिप्पणी में अंतर ध्यान रखना ज़रूरी है)। ऐसा मैं अपने थोड़े बहुत ज्ञान और थोड़े बहुत अनुभवों के आधार पर कह रहा हूँ। हालांकि हो सकता है मेरी ये बात कोसों दूर बैेठे बुद्धिजीवियों को नागवार गुजरे। मेरी समझ इतनी ही है ये समझ के या मैं सस्ती लोकप्रियता हासिल करने ये लेख लिख रहा हूँ ये समझ के ही मुझे भी भीड़ का हिस्सा मान के माफ़ करें। ये मेरे अपने विचार हैं।
कोई भी घटना शून्य में घटित नहीं होती। उसके घटने के पीछे परिस्थितियाँ, कारण, विद्यमान होते हैं और बेहद ज़रूरी है कि उस घटना की व्याख्या करते समय उन कारकों पर भी एक नज़र मार ली जाए।
लेखक: “बिलासपुर; एक शहर, एक कहानी” फेसबुक पेज के एडमिन हैं